© पूर्व सांसद, मानवेन्द्र सिंह जसोल की फेसबुक वॉल से कॉपी
दिल्ली में भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी में जुटे मालाणी के संभावनशिल नौजवान
Mahendra Gour Balotra का दाता पर लिखा समीक्षात्मक समसामयिक लेख.. ✍️
✒️ ... ”अंधेरे का वो एक युग जो हमारे पुर्वजों ने जिया”
“AN ERA OF DARKNESS”
📖पुस्तक समीक्षा ।
तत्कालीन भारतीय राजनेताओें में जसवंत सिंहजी जसोल के अतिरिक्त अगर मैनें जीभर के किसी लेखक की कृतियों को गहराई से बखूबी समझा और वाक़िफ़ हुआ, तो वो नाम है शशि थरूर ।
इन दोनों विद्वानों में एक पेरेलल यह समानता मिलती है कि अपनी भाषा-शैली में माहिर ये लेखक जब भी ये कुछ लिखते है; यह दंभ हमेशा इनकी लेखनी एवं मस्तिष्क में झलकता है कि कौन पाठक उनके बराबर पढा-लिखा या बराबरी का हो सकता हैं , तो स्वाभाविक है पुस्तक प्रेमी जगत में जब भी इनकी नई किताब आती है तो वो चर्चा का विषय ज़रूर बनती है । मसलन यह किताब थरूर साहब ने लिखी है तो-: अपनी पर्सनल ज़िंदगी में रंगीन मिज़ाजी से लबरेज़ ये लेखक प्रतिष्ठित ग्लोबल इंस्टीट्यूशन संयुक्त राष्ट्र संगठन के पुर्व में उपमहासचिव रह चुके है व फ़िलहाल भारत में मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट है।
पुर्व में अंतरराष्ट्रीय राजनयिक रह चुके इस लेखक की रूचि न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, व द हिन्दू जैसे प्रतिष्ठित अख़बारों में लेखन के अलावा भारतीय इतिहास, मिथक, और भारतीय संवैधानिक इतिहास में भी गहरी समझ के साथ शोध कार्यों में दिलचस्पी देखी गई है ।
यह पुस्तक ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में आयोजित एक वाद-विवाद में शशि थरूर महोदय द्वारा दिए एक भाषण का परिवर्धित रूप है।
जिसे जोशीले ढंग से उस समय थरूर ने भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत के असलियत की धज्जियाँ उड़ाई थी , और यह खबर आज के कोरोना महामारी की तरह ज़बरदस्त तरीक़े से विश्व भर में वायरल हुई...सोशल मीडिया के प्रत्येक प्लेटफ़ॉर्म पर उस विडियो को मिलियनस लाईकस व शेयरस मिले , यहॉं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र जी ने भी थरूर साहब को बधाई दी वह भी व्यक्तिगत रूप से मिलकर ।
लेखक का दावा है कि पुस्तक के प्रकाशन से पहले उन्होंने बड़े पैमाने पर शोध किया है और दूसरे पक्ष के तर्कों को भी तटस्थ भाव से पाठक के सामने रखने का प्रयास किया है ।
यहॉं आपको स्वर्गीय इतिहासकार विपिन चन्द्रा से लगाकर रामचंद्र गुहा तो साथ ही विलियम डैलीरंजल सरीखे विद्वानों को शामिल किया है तो वहीं सामने की तरफ़ महात्मा गांधी व जवाहरलाल नेहरु की जीवनशैली से भी सैंकड़ों उदाहरण लिये है ,वहीं भारतीय इतिहास की सार संक्षेप करने वाली नेहरू जी की “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” को भी प्रामाणिक स्रोत के रूप में लेखक ने जगह दी है ।
याद रहे कि ईसा के भी जन्म के कई सदी पुर्व भी भारत की एक स्पष्ट पहचान रही है, सिकंदर महान से लगाकर अरब चीनी सौदागर “हिन्द” की तरफ समय समय पर रूख करते रहे हैं ,मौर्यकाल से ही इस उपमहाद्वीप की भू-राजनीतिक एकता स्वीकारी जाती रही है।
मज़ेदार बात ये है कि इस पुस्तक में भारत की राष्ट्रीय पहचान और भावात्मक एकता के अकाट्य प्रमाण के रूप में लेखक “डायना” की एक हाल में प्रकाशित पुस्तक को उद्धृत करता है जिसका नाम “इंडिया: सैक्रेड ज्योग्राफ़ी”(भारत: पवित्र भूगोल)
(मेरी ये व्यक्तिगत सलाह है कि यह किताब हर किसी राष्ट्रप्रेमी को पढ़नी चाहिए, अब इसका हिंदी वर्जन भी मार्केट में उपलब्ध है)।
शशि की “एन एरा ऑफ डॉर्कनैस पुस्तक में कुल आठ अध्याय है पहले का शीर्षक है “लूटिंग इंडिया” अर्थात् कंपनी में बहादुर के शासन कॉल से ही भारत में संसाधनों के हथियाने की होड़ मच चुकी थी, स्थानीय शासक भ्रष्टाचार व अय्याशी में लिप्त थे एवं निरक्षर व अबोध प्रजा का खूब शोषण करते थे ...इस बारे में जहॉं तक मुझे लगता है लेखक ने गहराई में जाकर लिखा है अक्षरश कई किताबों और शोध संस्थान के पत्रों को ज़रूर टटोला होगा क़लमकार ने और जिसमें पाया कि
भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में जो लिखा गया है उसकी सच्चाई का हक़ीक़त रूप हर कोई जानता है कि कैसे मैकाले की शिक्षा व्यवस्था को कुंठित किया कि कलेक्टर, एस.पी की तो आशा ही बेकार कि वह भारतीय हो ,;दरोग़ा स्तर से ऊपर के हर लेवल का अफसर लगभग अंग्रेज़ होता था।
कैसे अंग्रेज़ीदां कपड़े उद्योग ने ढाके की मलमल के बुनकरों के हाथ काट डाले , रेल लाइनों को इसलिए बिछाया गया ताकि जगह-जगह होने वाले किसानों के विद्रोह को सैनिक भेजकर दबाया जा सके तथा साथ ही कच्चे माल को लंदन भेजने के लिए बंदरगाह तक ,उसको ढोने के लिए रेलगाड़ी से बेहतर कोई विकल्प नहीं था उनके पास ...।
इस प्रकार हम यह कह सकते है कि इन गोरे लोगों ने जो भी किया अपने स्वार्थ और साम्राज्यवाद को बढाने के लिए किया ,इस बात की लम्बी व्याख्या की गई है इस अध्याय में।
दूसरा अध्याय में पेश किया गया है कि क्या वास्तव में अंग्रेज़ों ने बंटे हुए हिन्दोस्तान की रियासतों में एकता लाने की कोशिश की थी ?
तीसरा अध्याय भी दिलचस्प है जिसमें पत्रिकारिता , संसदीय प्रणाली और क़ानून राज के संदर्भ में लेखन किया गया है तो साथ ही अंग्रेज़ी साम्राज्य के विरासत का मूल्यांकन किया गया है ( चूँकि यहॉं ‘विरासत’ शब्द का प्रयोग करना मेरे लिए पीड़ादायक है पर एक समीक्षक की नैतिकता के साथ यह ज़िम्मेदारी भी होती है कि वो पुस्तक की मौलिकता को बनाये रखें , वैसे भी मूल रूप से इंग्लिश में लिखी गई, ऐसी वृहद् पुस्तक का हिन्दी रूपांतरण करना बेहद दुष्कर व चुनौती भरा टास्क है खैर...।
चतुर्थ लेशन में वो ही घिसीपिटी कहानी फूट डालो और राज करो का अंकन किया गया है ... यहॉं आकर ऐसा लगता है कि लेखक की कलम और विचार दोनों में थोड़ा विरोधाभास नजर आता है... सो किताब अपनी रफ़्तार बेहद धीमी कर देती है यहॉं आकर , लेखक ने शायद ये पुर्वानुमान लगाया होगा कि पाठक भी कुछ तो दिमाग़ी कसरत करेगा इसलिए कई घटनाक्रमों को पढने वाले पर छोड़ कर कई बातों को अनुत्तरित ही रखा गया है ।
पंचम भाग में फिर से वो ही लिपापोथी कर लेखक ने क्रिप्स मिशन, और कैबिनेट प्लान को भैजै में बैठाने का प्रयास किया है ।
पर बड़ी ही आसानी से 1937-39 के बीच की कॉग्रेसी सरकारों की पक्षधरता और जेल से रिहाई के बाद नेहरू जी का माउंटबेटन के बहलाने फुसलाने से विभाजन को सर्वश्रेष्ठ विकल्प मान लेना वह अनदेखा कर देता है ।
घुमाफिराकर “ट्रिस्ट विद डेस्टिनी” वाले काव्यात्मक भाषण का सहारा लेकर शशि अपना पिछा छुडाते नजर आते है विशेषत: इस कॉन्सेप्ट के अन्तर्गत जहॉं कंटेंट की भारी कमी नजर आती है इस दिग्गज लेखक के पास; ऐसा मैनें महसूस किया , दरअसल पाठकों को शशि थरूर से इस विषय पर कोई शिकवा या शिकायत नहीं होनी चाहिए क्योंकि शशि ने अभी तक के अपने जीवन काल का अधिकतम समय आप्रवासी के रूप में बिताया है विदेशी नगरियों में ....बहरहाल आगे बढते है ।
सॉतवे अध्याय को बर्तानवी साम्राज्य के लेखा जोखा को लिपिबद्ध किया है जो कि आपको पढने पर रस्म अदायगी भर ही लगेगा, दादा भाई नौरोजी जैसे लोगों को पता नहीं लेखक क्युँ भूल गये ...एक यक्ष प्रश्न बनता है दिलोदिमाग़ में ...!
अंतिम पार्ट में दूसरी ख्यातनाम बुक्स का सहारा लेकर चीजों को धरातल पर लाने की कोशिश की गई है ...( साथ ही प्रख्यात समसामयिक मेगजीनस जैसे वर्ल्ड फोकस, फ्रंटलाईन आदि के लेखों को भी तव्वजों दिया गया है ) जो कि विशेष आकर्षण का केन्द्र बनेगा आपके लिए और किताब के लागत वसूली का जरिया भी ।
इसके दूसरे पायदान पर मेरा यह व्यक्तिगत मानना है जो कि मैंने समझा और सीखा वो यह कि आज की इतिहास की किताबें जो कि बच्चों को पढ़ाई जा रही है स्कूल या कॉलेज स्तर पर उनमें से बहुत सी चीजें, किरदार और घटनाक्रम एकदम ग़ायब से कर दिये गये है हालाँकि इसके लिए मैं किसी राजनीतिक पार्टी विशेष को दोष तो नहीे दूँगा ,लेकिन मुझे अफ़सोस है कि कुछ सवाल जो लगभग 73 साल निकलने के बाद भी अनसुलझे व मौन से होकर रह गये है !
जिसके अंतर्गत सुभाष चन्द्र बोस की मौत का मामला हो या उन हज़ारों श्रमिकों, मज़दूरों का जिनको अंग्रेजों ने जबरन दूसरे उपनिवेशों में बसाया था ,अपने कारख़ानों में तपने व मैला ढोने के लिए ,दर्द का मंजर इस कदर था कि उनके नाबालिग बच्चे इधर और वो सात समंदर पार भट्टी के समीप पसीना बहा रहे थे ।
यहॉं कि गंगा जमुना तहज़ीब की परम्परा है कि अगर आदमी के मरने पर उसकी अस्थियों को गंगा में विसर्जित कर दिया जाये तो उस प्राणी को मोक्ष प्राप्ति होती है ...पर उनकी अस्थियों को शायद “टेम्स” नदी का जल ज़्यादा ही प्यारा था जिसके किनारे लंदन बसा हुआ है।
मैं ज़्यादा लिखकर आपको भावुक नहीं करना चाह रहा लेकिन...सच्चाई यही है ।
2014 के चुनावी माहौल में एनडीए के प्रधानमंत्री प्रत्याशी ने खूब ये बात बोली और तालियाँ बजवाई कि मेरी पहली प्राथमिकता बोस की फ़ाईल जॉंच होगी! परन्तु परिणाम शिफर से शुन्य तक ही आगे बढ पाया.....।
......क्रमश